कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रही
मुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,
तुम्हारी पहली पसंद थी मै
फिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||
ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमने
पर अपने हृदय से नही,
मै कोई वस्तु तो ना थी
जिसे रख कर भूल जाओगे कहीं
अंतः मन मे सम्हाल कर रखो
बस इतनी सी ही तो है मेरी हसरत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||
तुम्हारे प्यार के सागर से
मिल जाते अगर दो घूट
अमृत समझ कर पी लेती
फिर चाहे जाते सारे बँधन छूट
खुदा से मांगती तो मिल गया होता
तुमसे माँगी थी थोड़ी सी मोहब्बत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||
मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रही
मुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,
तुम्हारी पहली पसंद थी मै
फिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||
ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमने
पर अपने हृदय से नही,
मै कोई वस्तु तो ना थी
जिसे रख कर भूल जाओगे कहीं
अंतः मन मे सम्हाल कर रखो
बस इतनी सी ही तो है मेरी हसरत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||
तुम्हारे प्यार के सागर से
मिल जाते अगर दो घूट
अमृत समझ कर पी लेती
फिर चाहे जाते सारे बँधन छूट
खुदा से मांगती तो मिल गया होता
तुमसे माँगी थी थोड़ी सी मोहब्बत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||
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