Monday 25 September 2023

छुप जाता है वो चेहरा शरारत करके

 मोहब्बत की थोड़ी सी इनायत करके 

छुप जाता है वो चेहरा शरारत करके, 

उसको नहीं ख़बर क्या  हाल है मेरा 

यख़-बस्ता है ज़र्बत-उल-हरारत करके|| 

#शिवदत्त श्रोत्रिय

Sunday 24 October 2021

मेरे जीवन की दुर्गन्ध

मेरी राख़ को बिखरा देना किसी बागान में  

मेरे मरने के बाद किसी पौधे को जीवन मिले 

कि निकले उस पौधे पर कोई फूल 

जिसकी सुगंध में छिप जाये मेरे जीवन की दुर्गन्ध || 

#शिवदत्त_श्रोत्रिय


 

Sunday 17 May 2020

लोगो को मुस्कराते समय

नगमे  मोहब्बत के,  होठो से गुनगुनाते समय
अंदर से रोते देखा, लोगो को मुस्कराते समय |

जुबां पर रहता है हर वक़्त एक नाम तुम्हारा
गला भर क्यों गया है आज तुमको बुलाते समय |

ख़ुशी और ग़म के पैगाम बाटते फिरते हो
खत-इजहारे-मौहब्बत लाना डाकिया आते समय |

जिंदगी के सफर में कभी मुख़ातिब हो न हो
एक तेरा दीदार चाहिए दुनिया से जाते समय |

ये दिल जिसमे तुम रहते हो  तुम्हारा ही घर है
थोड़ा सा तो रहम करो अपना घर जलाते हुए ||

#शिवदत्त श्रोत्रिय

Sunday 19 April 2020

चिराग़ तेरे जलने का

न कर इंतेज़ार तूफ़ान के थमने का कुछ तो सिला मिलेगा रेत पर चलने का सूरज ने कर लिया है रात से सौदा आ गया है वक़्त चिराग़ तेरे जलने का चाक घुमा और फूँक दे मिट्टी में जान बारिश आयी फिर सम्हाले नहीं सम्हलने का || #शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday 7 November 2019

पत्थर से प्यार कर

ज़िन्दगी है सीखेगा तू   गलती हजार कर
किसने कहा था लेकिन पत्थर से प्यार कर |

पत्थर से प्यार करके पत्थर न तू हो जाना
पथरा न जाये आँखे पत्थर का इन्तेजार कर |

ख़्वाब में भी होता उसकी जुल्फों का सितम
मजनूं बना ले खुद को  पत्थर से मार कर |

सिकंदर बन निकला था दुनिया को जीतने
पत्थर सा जम गया है पत्थर से हार कर |

मुकद्दर पर न छोड़ अब हाथ में उठा ले
पत्थर तराश दे तू   पत्थर औज़ार कर |

#शिवदत्त श्रोत्रिय ©शिवदत्त श्रोत्रिय

Saturday 19 May 2018

जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

 जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

कितना कुछ बदल जाता है
सारी दुनिया एक बंद कमरे में सिमिट जाता है
सारी संसार कितना छोटा हो जाता है

मैं देख पता हूँ, धरती के सभी छोर
देख पाता हूँ , आसमान के पार
छू पाता हूँ, चाँद तारों को मैं
महसूस करता हूँ बादलो की नमी
नहीं बाकी कुछ अब जिसकी हो कमी
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं ....

पहाड़ो को अपने हाथों के नीचे पाता हूँ
खुद कभी नदियों को पी जाता हूँ
रोक देता हूँ कभी वक़्त को आँखों में
कभी कितनी सदियों आगे निकल आता हूँ
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं ....

कमरे की मेज पर ब्रह्माण्ड का ज्ञान
फर्श पर बिखरे पड़े है अनगिनित मोती
ख़ामोशी में बहती सरस्वती की गंगा
धुप अँधेरे में बंद आँखों से भी देखता हूँ
हर ओर से आता हुआ एक दिव्य प्रकाश
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं .... 

Wednesday 14 March 2018

खुदखुशी के मोड़ पर

जिंदगी बिछड़ी हो तुम तन्हा मुझको छोड़ कर 
आज मैं बेबस खड़ा हूँ, खुदखुशी के मोड़ पर || 

जुगनुओं तुम चले आओ, चाहें जहाँ कही भी हो 
शायद कोई रास्ता बने तुम्हारी रौशनी को जोड़ कर || 


जानता हूँ कुछ नहीं मेरे अंदर जो मुझे  सुकून दे 
फिर भी जोड़ रहा हूँ  मैं खुद ही खुद को तोड़ कर || 

जिस्म को ढकने को हर रोज बदलता हूँ लिबास 
रूह पर  नंगी है कब से मेरे बदन को ओढ़ कर || 

#शिवदत्त श्रोत्रिय

Thursday 15 February 2018

जब से तुम गयी हो

हर रात जो बिस्तर मेरा इंतेजार करता था,
जो दिन भर की थकान को ऐसे पी जाता था जैसे की मंथन के बाद विष को पी लिया भोले नाथ ने
वो तकिया जो मेरी गर्दन को सहला लेता था जैसे की ममता की गोद
वो चादर जो छिपा लेती थी मुझको बाहर की दुनिया से
आजकल ये सब नाराज़ है, पूरी रात मुझे सताते है
जब से तुम गयी हो …
रात भी परेशान है मुझसे, दिन भी उदास है
शाम तो ना जाने कितनी बेचैन करती है
वो गिटार जो हर रोज मेरा इंतेजार करता था आजकल मुझे देखता ही नही
आज चाय बनाई तो वो भी जल गयी, बहुत काली सी हो गयी
लॅपटॉप है जो कुछ पल के लिए बहला लेता है मुझे सम्हाल लेता है
पर वो भी फिर कुछ ज़्यादा साथ नही निभाता ||
सब 2 दिन मे बदल गये है मुझसे, जब से तुम गयी हो….

Saturday 9 December 2017

खुद को तोड़ ताड़ के

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय

कब तक चलेगा काम खुद को जोड़ जाड के
हर रात रख देता हूँ मैं, खुद को तोड़ ताड़ के ||

तन्हाइयों में भी वो मुझे तन्हा नहीं होने देता 
जाऊं भी तो कहाँ मैं खुद को छोड़ छाड़ के ||

हर बार जादू उस ख़त का बढ़ता जाता है
जिसको रखा है हिफ़ाजत से मोड़ माड़ के ||

वैसे  ये भी कुछ नुक़सान का सौदा तो नहीं
सँवार ले खुद को वो अगर मुझको बिगाड़ के ||

खुशबू न हो मगर किसी को ज़ख्म तो न दे
तुलसी लगा लूँ आँगन में गुलाब उखाड़ के || 

Thursday 2 November 2017

कुछ फायदा नहीं

मैं सोचता हूँ, खुद को समझाऊँ बैठ कर एकदिन
मगर, कुछ फायदा नहीं ||

तुम क्या हो, हकीकत हो या ख़्वाब हो
किसी दिन फुर्सत से सोचेंगे, अभी कुछ फायदा नहीं ||

कभी छिपते है कभी निकल आते है, कितने मासूम है ये मेरे आँशु
मैंने कभी पूछा नहीं किसके लिए गिर रहे हो तुम
क्योकि कुछ फायदा नहीं

तुम पूछती मुझसे तो मैं बहुत कुछ कहता
मगर वो सब तुम्हे सुनना ही कहाँ था जो मुझे कहना था
मगर रहने दे, कुछ फायदा नहीं

फिर से वही दर्द वही आहे, लाख रोके खुद को फिर भी वही जाए
बेहतर होता कि कभी मिलते ही नहीं
मगर अब जब मिले है तो ये दर्द सहने दे
कुछ फायदा नहीं

वो कहती है में उसके काबिल नहीं हूँ
बहुत है अभी जिन्हे मै हासिल नहीं हूँ
कुछ भी हो हक़ीक़त मगर पागल नहीं हूँ
मगर कुछ फायदा नहीं

किसी दिन फुर्सत से सोचेंगे , अभी कुछ फायदा नहीं ||